Magazine

कहीं हमारी परवरिश में कमी तो नहीं……!!!

आजकल हर अखबार न्यूज़ चैनल रेप, चोरी-डकैती, मर्डर, तलाक और घरेलू हिंसा जैसी खबरों से भरे पड़े होते हैं | न्यूज़पेपर का पन्ना पलटा नहीं या न्यूज़ चैनल चेंज किया नहीं कि एक और नई खबर हमें देखने मिलती हैं | मानो जैसे समाज में क्राइम करने की होड़ सी लगी है |
हमारे घर के बड़े बुजुर्ग कहते हैं भाई घोर कलयुग है |

क्या है कलयुग ? क्या हो गया हमारे समाज को अचानक , जो यह सारी वारदाते या क्राइम अचानक से बढ़ गए हैं ?
कुछ लोग कहते हैं जमाना ही ऐसा है| कुछ कहते हैं लोग बीमार मानसिकता वाले हैं और कुछ कहते हैं कि मां बाप बच्चों को अच्छे संस्कार नहीं दे पाते तो कोई कहता है संगत का असर है | पर इसके पीछे किसका दोष है ?
चलिए थोड़ा गहराई से सोचते है | कहीं सच में हमारी परवरिश में कमी तो नहीं……!!!

पहले के जमाने में सामूहिक परिवार हुआ करते थे जो कि आजकल ना के बराबर ही हैं | यदि माता पिता बच्चों को समय नहीं दे पाए तो घर के दूसरे सदस्य दादा दादी बच्चों के साथ समय बिताते थे और उन्हें जीने की सही राह दिखाया करते थे | आजकल पति पत्नी एकल परिवार में रहना पसंद करते हैं या नौकरी की वजह से भी उन्हें परिवार से दूर रहना पड़ता है | ऐसे में बच्चे अकेले हो जाते हैं उनके पास TV, इंटरनेट, मोबाइल बस इन्हीं बातो का सहारा होता है |
माता-पिता ऑफिस में बिजी होते हैं और बच्चे स्कूल ट्यूशन में | जो घर आकर समय मिलता है उसमें माता-पिता घर गृहस्थी के काम निपटाते हैं और बच्चे स्कूल ट्यूशन के |
ना तो उनके पास समय है और ना ही बच्चों के पास ऐसे में बच्चे क्या सीखेंगे ?
हम समाज को दोष देते हैं , समाज में होने वाले किसी भी कृत्य के लिए लोगों की मानसिकता को दोष देते हैं | लेकिन यह भूल जाते हैं कि हम भी इसी समाज का हिस्सा है और कहीं ना कहीं हम भी इसके लिए जिम्मेदार हैं |

जब बच्चे डिस्टर्ब कर रहे हैं तो उनका ध्यान भटकाने के लिए उनके हाथ में मोबाइल हम खुद देते हैं या उन्हें TV के सामने कार्टून लगा कर हम खुद ही बैठाते हैं और जब उन्हें इसकी आदत हो जाती है कहते हैं आजकल के बच्चे बस TV और मोबाइल में चिपके रहते हैं अरे भाई जब उन्हें हमारी जरूरत थी तब हम बिजी थे जब उन्हें रोकना चाहिए था तब क्यों नहीं रोका ? अब चिढ़कर क्या मतलब ? इन सब उपरणों के सहारे हम ने ही उन्हें छोड़ा है |

जब माता-पिता ज्यादा थके होते हैं बच्चों को समय नहीं दे पाते तब उनसे चिढ़ कर बात करते हैं ऐसे में बच्चों में हीन भावना पैदा हो जाती है |

बच्चे घर में अकेले रहते हैं TV पर फिल्म कार्टून सीरियल देखा करते हैं मोबाइल पर जो देखना ना हो वो भी देखा करते हैं तो TV, मोबाइल उनमें कैसे संस्कार डालेगा यह तो आप समझ ही गए होंगे |
अश्लील गाने फोटो पिक्चर किसिंग सीन यही सब उन्हें देखने मिलता है जब बचपन से यही सब देखते हुए हुए बड़े होते हैं तो कहां से हम एक अच्छे समाज की कल्पना करें |

हमारी आने वाली पीढ़ी में शुरू से यही संस्कारो के बिज बो चुके होते हैं तो अब अगर मां-बाप की वृद्धाआश्रम में गिनती बढ़ रही है, रेप और तलाक की घटनाएं बढ़ रही है तो इसका दोष दूसरों पर डालना क्या सही होगा ?

चलिए डिवोर्स का ही उदाहरण लेते हैं समाज में पहले के मुकाबले डिवोर्स बढ़ गये हैं क्यों ?
पहले के जमाने में तो बच्चों से पूछा भी नहीं जाता और शादी हो जाती थी अब तो बच्चों से पूछ कर उन की सहमति से सब होता है फिर तलाक क्यों बढ़ गए ?
क्या कारण है इसका ?
जब पहले पति-पत्नि के बीच छोटी-छोटी बहस हुआ करती थी , घर के बड़े बुजुर्ग बीच में पड़कर उन्हें समझाते थे अपना अनुभव बताते थे ,सुलह करवाते थे ,समझाते थे | यही उनकी जिम्मेदारी हुआ करती थी परंतु आज तो सब एकल परिवार में रहते हैं और सहनशक्ति तो पूछो ही मत |
चाहे वह पति हो या पत्नी , पल भर में छोटी सी बात बड़े झगड़े में बदल जाती है और सिवाय दोनों के वहा कोई नहीं होता जो बीच में पड़कर सुलझाएं और यही सब बच्चे देखते हैं और बस बात बिगड़ जाती है |

अब आप लोग कहेंगे कि इन सब बातों का क्या मतलब है कि हमें क्या करना चाहिए अब क्या TV भी ना देखें या नौकरी ना करें ??
मेरा मानना यह है कि समाज को, सरकार को , लोगों की मानसिकता को कोसकर कोई फायदा नहीं है | जो भी शुरुआत करनी है अपने खुद के घर से कीजिए | अपने परिवार से कीजिए | अपने बच्चों को क्या संस्कार देना है और क्या सिखाना है यह आपकी जिम्मेदारी है ताकि आगे चलकर घरेलू हिंसा , रेप , तलाक जैसे कृत्यों में आपके बच्चों का नाम ना हो |

Share post: facebook twitter pinterest whatsapp